Friday, January 28, 2011

India Marches Against Corruption…

New Delhi (India) (Mediabharti Syndication Service): Come 30th January and thousands of people in many cities across India and abroad will take to streets to demand effective anti-corruption law and passage of Jan Lokpal Bill.

In Delhi, Swami Agnivesh, Kiran Bedi, Arvind Kejriwal, Anna Hazare, Prashant Bhushan, Maulana Mahmood Madani, Vincent M Concessao and others will march from Ramlila Grounds to Jantar Mantar, the day Mahatma Gandhi was assassinated, at 1 pm to demand enactment of a law to set up an effective anti-corruption body called Lokpal at the Centre and Lokayukta in each state (the existing Lokayukta Acts being weak and ineffective). Large number of college students, professionals from corporate sector, teachers RWA members, government employees, lawyers, doctors and others will participate in this march.

Kiran Bedi, Justice Santosh Hegde, Prashant Bhushan, JM Lyngdoh and others have drafted this Bill. A nation wide movement called ‘India Against Corruption’ has been started by Sri Sri Ravi Shankar, Swami Ramdev, Swami Agnivesh, Vincent M Concessao, Kiran Bedi, Arvind Kejriwal, Anna Hazare, Devinder Sharma, Sunita Godara, Mallika Sarabhai and many others to persuade government to enact this Bill.

UPA Chairperson Sonia Gandhi recently announced that Lokpal would be set up. However, the Lokpal suggested by the government is only a showpiece. It will have jurisdiction over politicians but not bureaucrats, as if politicians and bureaucrats indulge in corruption separately. And the most interesting part is that like other anti-corruption bodies in our country, the government is making Lokpal also an advisory body. So, Lokpal will recommend to the government to prosecute its ministers. Will any prime minister have the political courage to do that?

For details, please visit this link for Full Text Of Bill.

Wednesday, January 19, 2011

ये किस तरह की पत्रकारिता है...?

आगरा के वरिष्ठ पत्रकार और आगराटुडे.इन के संपादक बृज खंडेलवाल को दैनिक जागरण के आगरा संस्करण ने 'मृत' घोषित कर दिया।

पेज छह पर छपी खबर 'शैलेंद्र रघुवंशी स्मृति में दिवंगतजनों को नमन' के अनुसार 'नगर के दिवंगत बृज खंडेलवाल, कांति भाई पटेल, निरंजन लाल शर्मा, अतुल माहेश्वरी और एचके पालीवाल आदि को दो मिनट का मौन रखकर श्रद्धांजली अर्पित' की गई।

दरअसल, नागरी प्रचारिणी सभा के शताब्दी वर्ष और दिवंगत रंगकर्मी शैलेंद्र रघुवंशी की याद में मंगलवार को गीतांजलि, नाट्यांजलि समारोह का आयोजन किया गया। अखबार में इस समारोह को लेकर खबर छापी गई थी। जिसमें अन्य दिवंगतों के साथ बृज खंडेलवाल का भी नाम जोड़ दिया गया।

इस सिलसिले में दिनभर आगराटुडे.इन के कार्यालय में लोगों के फोन कॉल और ऑनलाइन पूछताछ आती रही।

Friday, January 14, 2011

'धुरंधर धर्मगुरु', और धंधे की पराकाष्ठा...

धर्मेंद्र कुमार
जीवन कैसे जिया जाना चाहिए, इसके विभिन्न तरीकों की जानकारी विभिन्न धर्मों से मिलती है, परंतु जीने का मूलभूत तरीका एक ही है, इसलिए कमोबेश सभी धर्म एक ही तरह की सलाह देते दिखते हैं... इसीलिए कहा भी जाता है, सभी धर्म समान हैं...
ऐसा माना जाता रहा है कि आम आदमी को जीने के उचित तौर-तरीकों की 'ज्यादा' जानकारी नहीं है, इसलिए, उन्हें 'शिक्षित' करने का काम धर्मगुरुओं को सौंप दिया गया, जो समय-समय पर धर्म की व्याख्या कर लोगों को 'राह' दिखाने का काम करते रहे हैं...
बचपन से अब तक मां-बाप, अध्यापकों और किताबों से जो थोड़ी-बहुत जानकारी धर्मगुरुओं के बारे में मिली, उससे उनकी एक छवि दिमाग पर अंकित हो गई... एक वृद्ध, कृशकाय शरीर, ममता से भरा अतिसंवेदनशील व्यक्तित्व... उनके पास जब भी आप जाएंगे, वही ममता पाएंगे, जो मां की गोद में मिलती है... वही सहारा मिलेगा, जो पिता अपने बच्चे को देता है... वही ज्ञान मिलेगा, जो एक अच्छा अध्यापक अपने प्रिय शिष्य को देता है...
मेरे दिमाग में अंकित इस छवि को सबसे पहले तोड़ा, मेरे एक सहपाठी ने... पत्रकारिता संस्थान के दिनों में मेरे एक साथी ने खुलासा किया कि वह पत्रकारिता का कोर्स सिर्फ इसलिए कर रहा था, क्योंकि उसके भाई एक 'उभरते' हुए कथावाचक थे और उसे कालांतर में भैया का 'पब्लिक रिलेशन' विभाग संभालना था। उस समय मेरे लिए यह किसी आश्चर्य से कम नहीं था, परंतु उसका कहना था, कथावाचन करोड़ों का पेशा है और 'धन-पशु' मोटा चढ़ावा और दान दिया करते हैं... कथावाचन के पेशे में आगे बढ़ने के लिए 'तकनीकी' रूप से जागरूक होना अनिवार्य है, अत:, पत्रकारिता की जानकारी और परिचय बनाने भी जरूरी हैं...
इसके बाद संयोग से मेरे पत्रकारिता जीवन की शुरुआत में मुझे भी धर्म-कर्म की खबरों के संकलन का ही काम दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप कई धर्मगुरुओं, मठाधीशों और महंतों से मेरा साबका पड़ा... मुझे याद है, हमारे प्रभारी ने मुझे आगरा के मन:कामेश्वर मंदिर के 'नामी-गिरामी' महंत से मिलने का निर्देश दिया, क्योंकि तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने ज्योतिष को पाठ्यक्रम में शामिल कराया था, जिस पर महंत जी के विचार जानने थे... मेरे लिए किसी 'स्टार' महंत से साक्षात्कार का यह पहला अवसर होने वाला था... जब मैं उनके पास पहुंचा तो बताया गया कि महंतजी भोजन कर रहे हैं। मुझे उनके कक्ष के बाहर प्रतीक्षा के निर्देश दिए गए...
इस दौरान मस्तिष्क में यही चलता रहा कि एक ममतामयी मां, एक परवाह करने वाले पिता और एक ज्ञानी अध्यापक से मिलने जा रहा हूं... कुछ ही क्षण बाद मुझे अंदर बुलाया गया, परंतु वहां का वैभव मेरे मन में बसी छवि के लिए कुठाराघात सिद्ध हुआ... मैं दंग रह गया, और महंतजी बॉलीवुड की फिल्मों की तरह सुनहरे सिंहासन पर विराजमान थे... खैर, मैंने सवाल किए, और उन्होंने अपनी राय दे दी... मैं चलता बना...
बाहर निकलने के बाद मैं बेहद सकते की सी हालत में था, बचपन से बनी छवि के छिन्न-भिन्न हो जाने के कारण... परिणाम यह रहा कि कुछ दिन के बाद ही जब मुझे संत आसाराम बापू के आगरा प्रवास के दौरान उनका साक्षात्कार लेने का निर्देश मिला, तब मैंने अपने प्रभारी से अनिच्छा जताई, और उन्होंने भी मेरी प्रार्थना का सम्मान रखते हुए किसी अन्य साथी को वह काम सौप दिया... बाद में आसाराम बापू के साथ क्या-क्या हुआ, सब जानते हैं...
ऐसे ही किस्से सुन-सुनकर धर्म के प्रति अगाध निष्ठा होने के बावजूद धर्मगुरुओं के प्रति मेरे मन में सम्मान के स्थान पर आश्चर्यजनक रूप से ग्लानि भाव बढ़ने लगा... कालांतर में, मैं दिल्ली आ गया और यहां भी मुझे कई 'संतों' के बारे में करीब से जानने का अवसर प्राप्त हुआ... धर्म के ठेकेदारों के पास भी किसी कॉरपोरेट की ही तरह 'फ्रेंचाइज़ी' हो सकते हैं, होते हैं, यह यहां आकर ही पता चला... किसी 'भगवान' के पास भक्तों की दी करोड़ों की संपत्ति है, किसी के पास किसी ट्रस्ट या वक्फ की आड़ है, और किसी के पास करोड़ों के टर्नओवर वाला दवाओं का व्यापार... कुछ के पास बाकायदा 24 घंटे लगातार प्रसारण करने वाले टीवी चैनल भी हैं, लेकिन संपत्ति भक्तों की बताई जाती है... धंधे अलग-अलग होने के बावजूद जो बात इन सभी बाबाओं में समान है, वह है संन्यास और निर्मोह जीवन की बातें और करोड़ों का ज़खीरा...
ये बाबा और 'भगवान' राजाओं-महाराजाओं की तरह आम जनता से मिलते हैं, 'दरबार' लगाते हैं और व्यापार का कोई मौका नहीं चूकते... कई ऐसे संत भी हैं, जिनके भूतकाल या यूं कहिए, 'वाल्मीकि' जीवन के बारे में यदा-कदा खबरें मिलती रहती हैं... लेकिन धंधे की पराकाष्ठा क्या हो सकती है, यह तय नहीं कर पा रहा था... अब ऐसा लगता है, पराकाष्ठा की तलाश शायद खत्म हो जाएगी... हाल ही में भगवद्भूमि कहे जाने वाले वृंदावन में एक पॉपुलर 'संत' ने अपनी ही पत्नी (जो प्राचीन काल में गुरु की पत्नी होने के नाते मां-समान कही जाती थीं) और अन्य सगे-संबंधियों की अश्लील (ब्लू) फिल्में बनाकर इस व्यवसाय में हाथ आजमाया... इन फिल्मों की विशेषता 'घर के अभिनेताओं' के अतिरिक्त पृष्ठभूमि में मौजूद धार्मिकस्थल, भगवानों की मूर्तियां, तथा दीवारों पर लिखे सूत्रवाक्य हैं... उक्त 'संत' ने ऐसा क्यों किया, इसके कारण सोचने का प्रयास करने पर फिलहाल एक ही बात समझ आती है, कि शायद विदेशी बाज़ार में इस ‘कॉन्टेन्ट’ की ज्यादा मांग है... मामले की पोल तब खुली, जब 'संत' जी का कम्प्यूटर खराब हो गया और सही करने वाले ने पूरा 'बैकअप' लेकर शहर-भर में मुफ्त बांट दिया... अब 'संत' जी फरार हैं, पुलिस मामले की जांच कर रही है... कहा जा रहा है कि यह गोरखधंधा दो-तीन साल से जारी था...
इसके अलावा भी कुछ और जानकारी पुलिस तंत्र से छन-छनकर आ रही है... ऐसे अन्य संत भले ही अपनी पत्नियों या बेटियों की ब्लू फिल्में नहीं बना रहे होंगे, लेकिन 'धंधा' वे भी चलाते हैं... जिसके लिए पूरा 'तंत्र' बना रहता है, 'ऑफिस बियरर' भी होते हैं, 'पब्लिक रिलेशन ऑफिसर' भी... 'मार्केटिंग मैनेजर' भी होते हैं, और यहां तक कि मीडिया में भी 'सेटिंग' रहती है... बाबा अपने नाम का जितना ज़्यादा प्रचार करवा पाएगा, उतना ही भक्तों की गिनती बढ़ेगी, और उसी अनुपात में बढ़ेगा, आश्रम में पहुंचने वाला चढ़ावा... प्रवचन के दौरान भी चढ़ावे के वजन के हिसाब से भक्तों को बैठने का स्थान दिया जाता है... 'बड़े' भक्त आगे, बाबा के करीब, और 'छोटे' भक्त पीछे की ओर... जितना ज्यादा चढ़ावा, उतना ही संत जी के करीब पहुंचेगा भक्त...
अब एक बात हम सभी के लिए... संतों की इस 'बिजनेस व्यवस्था' को पनपने देने के लिए दरअसल हम आम धर्मभीरु नागरिक ही जिम्मेदार हैं, जो अपनी परेशानियों को दूर करने के लिए भगवान से मदद चाहते हैं, और उसी उद्देश्य से आगा-पीछा सोचे बिना बाबाओं की गोद में जाकर बैठ जाते हैं... ऐसे ही अंधभक्तों की बदौलत चलता है, आस्था का यह कारोबार... अब देखना यह है कि कब खुलती हैं हमारी आंखें, वरना धंधे में नीचे गिरने की पराकाष्ठा रोज़ बदलती रहेंगी...

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