धर्मेंद्र कुमार
आंखों में सपने लिए, घर से वे चल तो दिए लेकिन राहें उन्हें न जाने कहां ले गईं। घर-परिवार के लोग ढूंढ़ते रहे और बीते आठ महीनों से तो कोई संदेशा भी नहीं आया। आई तो उनमें से एक की लाश, एक बैरंग लिफाफे की तरह। लाश... लेने के लिए भी नियोक्ता कंपनी ने मांगे तीन लाख रुपये, पैसे थे नहीं... आखिर, लाश तो मिल गई लेकिन लग गए और दो महीने। अब अंतिम संस्कार करके घर में मां-बाप और बहन-भाई बैठे हैं, रो रहे हैं कि आखिर किस बुरी घड़ी में उन्होंने अपने जिगर के टुकड़े को शारजाह जाने की अनुमति दे दी।
ये कहानी उनमें से एक की है। बाकी और नौ घरों के चिराग हैं जिनके बारे में अभी कोई खबर नहीं है।
वलसाड के भूपेंद्र सिंह, जयपुर के विकास चौधरी, भूमराम रूंदला और रतिराम जाट (दोनों भाई), रांची के अमित कुमार, लुधियाना के जितेंद्र सिंह, भिवानी के विक्रम सिंह, रेवाड़ी के नरेंद्र कुमार, महाराष्ट्र के प्रकाश जाधव तथा अलीगढ़ के सरवन सिंह ने हैदराबाद के एक मर्चेंट नेवी प्रशिक्षण संस्थान में प्रवेश लिया। कोर्स के दौरान ही ऑन बोर्ड ट्रेनिंग और नौकरी का वादा किए जाने के चलते इन छात्रों को एजेंटों के जरिए दुबई की बिन खादिम कंपनी के तेल वाहक जहाज अल वतूल पर तैनाती करा दी गई। युवकों ने अपने परिजनों को बताया था कि वे शारजाह से ईरान तेल के आयात-निर्यात करने वाले जहाज पर तैनात हैं।
माह फरवरी के अंतिम सप्ताह में ये लोग शारजाह के लिए रवाना हुए। अप्रैल तक ये लोग अपने परिजनों से संपर्क करते रहे। लेकिन यकायक यह सिलसिला बंद हो गया। घर के लोगों की चिंताएं बढ़ीं तो उन्होंने खोजबीन शुरू की। सबसे पहले उन एजेंटों से बात की गई जिनके जरिए इन युवकों की तैनाती कराई गई थी। कुछ दिन तक ये एजेंट उन्हें आश्वासन देते रहे लेकिन बाद में फोन उठाना बंद कर दिया। इस दौरान इतना जरूर पता लगा कि अल वतूल जहाज को ईरानी कोस्टल गार्ड ने अपने कब्जे में ले लिया है।
ज्यादा छानबीन की गई तो पता चला कि जहाज रास्ता भटककर ईरानी सीमा में चला गया और जहाज पर तैनात सभी कर्मियों को तस्करी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया है।
कोई चारा न देख परिजनों ने बंदर अब्बास स्थित भारतीय वाणिज्य दूतावास से संपर्क किया। बार-बार फोन करने पर कार्रवाई का ‘आश्वासन’ मिला। लेकिन इससे ज्यादा कुछ नहीं हुआ। युवकों में से एक भूपेंद्र सिंह के पिता राजेंद्र सिंह चौधरी और रूंदला बंधुओं के रिश्तेदारों ने भारत में ईरानी दूतावास और विदेश मंत्रालय से भी जानने की कोशिश की लेकिन नतीजा... वही ढाक के तीन पात।
15 मई को एक युवक सरवन सिंह की मौत हो गई तो परिजनों को कंपनी की ओर से इसकी खबर मिली और शव भेजने के लिए तीन लाख रुपये खर्चे के रूप में जमा करने की बात कही गई। सेवानिवृत फौजी पिता ने पैसे देने में असमर्थता जताई तो 18 अगस्त को उसके शव को दिल्ली भेज दिया गया। जहां उसके परिजनों ने इसे प्राप्त कर लिया। इस मामले में जब ईरानी दूतावास से पता किया गया तो बताया गया कि सरवन की मौत हृदय गति रुक जाने से हुई। जबकि एजेंटों से मिली जानकारी के अनुसार इन युवकों को ईरानी कोस्ट गार्ड ने हिरासत में लिया था। ईरान में भारतीय दूतावास से संपर्क करने पर बताया गया कि जहाज पर समुद्री लुटेरों का हमला हुआ था जिसमें सरवन की मौत हुई। बहरहाल, सरवन के जिस्म पर चोट का कोई निशान न था।
सरवन के पिता भूरे सिंह की अपने बेटे से आखिरी बात 28 अप्रैल को हुई थी जिसमें उसने घर के लिए 40 हजार रुपये भेजने की बात कही थी।
इस घटना से अन्य युवकों के परिजनों की चिंताएं बढ़ गईं। संसाधनों के हिसाब से प्रयासों में और तेजी लाने की कोशिश की गई। अबू धाबी के भारतीय दूतावास में यहां के कामगारों की मदद में जुटे भारतीय कामगार संसाधन केंद्र (IWRC) से संपर्क स्थापित किया गया तो उन्होंने कोई जानकारी मिलने पर सूचना देने की बात कही।
अब सवाल यह है कि यदि किसी भारतीय के साथ विदेशों में कोई अनहोनी होती है तो इसमें उनके परिजनों की मदद के लिए कौन मौजूद है।
दूतावासों से संपर्क किया जाए तो जल्द कार्रवाई करने के 'सरकारी' जवाब मिलते हैं। विदेश मंत्रालय से बात की जाए तो वे दूतावास से संपर्क करने की बात कह देते हैं। एक दूसरे पर टोपी रखने का क्रम अनवरत चलता रहता है। निर्दोष भारतीयों के विदेशों में जाकर कहीं फंस जाने की स्थिति में भारत सरकार के पास क्या समाधान है।
इस बार सवाल 10 नवयुवकों का है। उनसे जुड़ी जिंदगियों का है। उन लोगों का है जिनके घर में उनके परिजन बेसब्री से उनका इंतजार कर रहे हैं। हर फोन की आहट पर उन्हें लगता है कि जैसे उनके बेटे ने आवाज दी है...
No comments:
Post a Comment